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लोकसभा का इस बार का चुनाव सात चरणों में सम्पन्न होना है, दो चरणों का मतदान हो चुका है। अगला तीसरा चरण सात मई को होना है। इस चरण में 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश की 95 लोकसभा सीटों के लिये मतदान होगा, जबकि 1351 उम्मीदवारों की किस्मत दांव पर होगी। गुजरात की 25 सीटों के लिये मतदान इसी चरण में होगा। इस चरण में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और कर्नाटक की कई सीटें के लिये वोट डाले जाएंगे। मध्य प्रदेश के बैतूल से बसपा प्रत्य़ाशी की मृत्यु के बाद वहां चुनाव रोक दिया गया था, हालांकि, चुनाव आयोग ने इस सीट के लिये मतदान इसी चरण में कराने का फैसला किया है, जबकि गुजरात की सूरत सीट से बीजेपी उम्मीदवार मुकेश दलाल एक विशिष्ट ऑपरेशन के बाद निर्विरोध रूप से चुनाव जीत चुके हैं। इस चुनाव की खासियत यह है कि कोई भी मुद्दा चुनाव-विमर्श में आम मतदाता के दिमाग में गूंज नहीं पा रहा है। फलस्वरूप, न केवल मतदान कम हो रहा है, वरन राजनीतिक दलों के नेताओं को ऐसा मुद्दा खोज पाने में काफी मशक्कत करनी पड़ रही है जो उन्हें जीत दिला सके।    

   उस दौर मे जब मानव का अस्तित्व विज्ञान और तकनीक की तेज रफ्तार तरक्की से गतिमान विश्व जीवन के साथ बेहद पुख्ता तरीके से जुड़ गया है, एक पक्ष साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये विजय हासिल करने का प्रयास करता प्रतीत होता है तो दूसरी ओर, इस रणनीति को मात देने के लिये खामोशी बरती जा रही है। इसका नतीजा यह है कि चुनावों में सन्नाटा पसर गया है। बदलते मुद्दों के क्रम में विपक्षी गठबंधन ने जब संविधान को बदलने और संविधान में प्रदत्त आरक्षण को समाप्त करने का आरोप लगाया तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की एक बार फिर से सफाई सामने  आई कि संघ आरक्षण के विरुद्ध नहीं है। भारतीय जनता पार्टी का मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपना परिचय सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के रूप में देता है और बार-बार कहता है कि उसका राजनीति से कोई लेना-देना  नहीं है। ऐसी स्थिति में वह राजनीति के इन विवादास्पद मुद्दों में क्यों पड़ता है?  वस्तुत: संघ इस विचार का प्रबल पक्षधर रहा है कि आरक्षण के मुद्दे की समीक्षा होनी चाहिये। लेकिन चुनावी जरूरत को ध्यान में रखकर उसे अपना सार्वजनिक पक्ष बदलना पड़ता है।

  ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस बार चुनाव में पहले की तरह सक्रिय नहीं है। अगर यह सच है तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन इसकी प्रेरणा की पड़ताल अधिक महत्वपूर्ण है, जिससे प्रेरित होकर उसने चुनाव में अपनी सहभागिता को सीमित किया है। यदि संघ ने अपने संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के दर्शन पर फिर से केन्द्रित होने का मन बनाया है तो यह स्तुत्य है। डॉ. हेडगेवार चाहते थे कि लंबे परतंत्रताकाल के कारण राष्ट्र में आई चारित्रिक दुर्बलता को दूर कर इसे सुसंगठित करना चाहिये। इस राष्ट्र को उन्होंने हिन्दू पुकारने का आग्रह किया और इसमें सभी उपासना पद्धतियों का समावेश किया। लेकिन भारतीय जनता पार्टी  के सत्ता में आने के बाद संघ भी उसकी चकाचौंध का शिकार बनता दिखाई दिया। अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के चुनावी बॉंड जैसे अब तक के सबसे बड़े घोटाले और भ्रष्टाचार पर उसने अपनी आंखें मूंद लीं। संघ अपने इस ध्येय की ओर शाखा पद्धति से कड़ा परिश्रम करते हुए लौटना चाहता है, तभी यह स्वागत योग्य है, अन्यथा नहीं। संघ को यह भी देखना चाहिये कि उसका राजनीतिक फ्रंट किस तरह राष्ट्र में विभाजनकारी गतिविधियों में संलग्न और पूंजीवाद का प्रबल पक्षधर हो गया है। उसके विविध क्षेत्रों में सक्रिय संगठन निष्क्रिय हो गये हैं। उदाहरण के लिये भारतीय किसान संघ की आज क्या स्थिति है? न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी ज़ामा पहनाने के लिये हुए देशव्यापी आंदोलन में वह अप्रासंगिक हो गया। संघ क्यों अपने इन क्षेत्रों में कार्यरत चिंतकों और प्रबुद्ध कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करता दिखाई दे रहा है? भारतीय मज़दूर संघ की स्थिति भी अलग नहीं है, जिसे विलक्षण चिंतक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने स्थापित किया था। संघ व्दारा कुपाहेल्ली सीतारमैया सुदर्शन के नेतृत्व में अटल बिहारी वाजपेयी के राय-मशविरे पर मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की स्थापना की गई थी ताकि जिनकी इस्लामिक उपासना पद्धति है, उन्हें संघ-भाजपा से जोड़ा सके। क्या संघ की दृष्टि में अब इसकी जरूरत नहीं रह गई है?  व्यवहार में तो  ठीक इसके विपरीत किया जा रहा है। उपासना के आधार पर हिन्दू माने जाने वाले समाज और उनके बीच घृणा फैलाकर का हिन्दू समाज का एकमुश्त वोट लेने का प्रयास किया जा रहा है। क्या यह सिर्फ इसलिये किया जा रहा है कि सरकार  पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से किसानों, मजदूरों, शोषितों और वंचितों की आवाज़ अनसुना करना चाहती है, जैसा कि विपक्ष आरोप लगाता है? यदि विपक्ष के इन आरोपों में कोई  दम नहीं हैं और ये राजनीति से प्रेरित हैं तो संघ को स्पष्ट भूमिका में सामने आना चाहिये। संघ को सिद्ध करना ही होगा कि वह सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है और उसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है।   

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