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इस बार के लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग के प्रति भरोसे का जो संकट सामने आया है, वह अभूतपूर्व है। चुनाव से पहले मतदाता सूची को लेकर कई विवाद खड़े हुए तो पहले दो चरण के चुनाव के बाद मतदान संबंधी आंकड़े सार्वजनिक करने में जिस प्रकार रहस्यमय देरी की गई, उससे यह संकट और ज्यादा गहरा गया। राजनीतिक नेताओं के आपत्तिजनक बयानों पर कार्रवाई को लेकर भी आयोग का रवैया निश्पक्ष नज़र नहीं आया। चुनाव आयोग ने गत मंगलवार को लोकसभा के पहले और दूसरे चरण के मतदान के आंकड़े जारी किये। पहले चरण में 66.14 प्रतिशत और दूसरे चरण में 66.71 प्रतिशत मतदान हुआ। आयोग के पोल पैनल के मुताबिक, पहले चरण में, 66.22 प्रतिशत पुरुष और 66.07 महिला मतदाता मतदान करने आये। थर्ड जेंडर वोटर्स का मतदान प्रतिशत 31.32% रहा। दूसरे चरण में पुरुष मतदान 66.99%, जबकि महिला मतदान 66.42% रहा। थर्ड जेंडर की वोटिंग 23.86% रही। विपक्षी दलों ने देरी से मतदान के आंकड़े जारी करने पर चुनाव आयोग पर सवाल खड़े किये। विपक्ष का कहना है कि आमतौर पर यह आंकड़ा मतदान के 24 घंटों के भीतर जारी कर दिया जाता है। लेकिन इस बार यह पहले चरण के 11 दिन और दूसरे चरण के चार दिन बाद जारी किया गया। साथ ही, परम्परागत संवाददाता सम्मेलन भी आयोग ने आयोजित नहीं किया।  

 इन आंकड़ों के आने से पहले कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा कि चुनाव आयोग को चुनाव से जुड़े सभी आंकड़े पारदर्शी तरीके के साथ सार्वजनिक करना चाहिये। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स में लिखा कि ऐसा पहली बार हो रहा है कि पहले चरण के मतदान के 11 दिन बाद और दूसरे चरण के चार दिन बाद भी चुनाव आयोग ने मतदान प्रतिशत का अंतिम डेटा जारी नहीं किया है। पहले चुनाव आयोग मतदान के तुरंत बाद या 24 घंटों के भीतर मतदान प्रतिशत का अंतिम डेटा जारी करता था। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर केवल अनुमानित रुझान आंकड़े ही उपलब्ध हैं। इस देरी का कारण क्या है? चुनाव आयोग ने अपनी सफाई में कहा कि वोटिंग प्रतिशत किसी भी ‘वोट टर्नआउट’ एप पर तुरंत देखे जा सकते थे। ये आंकड़े मतदान के अगले दिन और कुछ सीटों पर दो दिन में अपडेट हो चुके थे। आयोग के मुताबिक उसने स्पष्ट भी किया था कि वोट प्रतिशत 7 बजे तक बूथ से मिले आंकड़ों के आधार पर हैं, कई केंद्रों पर मतदान छह बजे बाद भी चलता रहा। अरुणाचल प्रदेश सहित पूर्वोत्तर के राज्यों के दूरस्थ इलाकों वाले केद्रों से डेटा देरी से अपलोड हुआ। देरी की एक वजह यह भी रही कि आयोग यह तय कर रहा था कि डेटा किस फॉर्मेट में दिया जाये, ताकि मतदाताओं को बेहतर जानकारी मिल सके। वस्तुत: मीडिया के एक वर्ग में आईं खबरों के बाद चुनाव आयोग ने ये आंकड़े जारी किये। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने फरक्का में रैली के दौरान आशंका जताई कि भाजपा नतीजों में हेरफेर करा सकती है, क्योंकि कई ईवीएम गायब थीं। उन्होंने मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी पर भी चिंता जताते हुए ​कहा कि अचानक वृद्धि न सिर्फ परेशान करने वाली है, बल्कि ईवीएम की विश्वसनीयता के बारे में संदेह पैदा करती है। टीएमसी नेता डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि आंकड़े में लगभग छह प्रतिशत का फर्क है तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी नेता सीताराम येचुरी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर सवाल उठाया कि हर संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं की पूरी संख्या क्यों नहीं बताई जाती? जब तक यह आंकड़ा पता न चले, आंकड़ा बेकार है। येचुरी ने कहा कि नतीजों में हेरफेर की आशंका बनी हुई है, क्योंकि गिनती के समय कुल मतदाता संख्या में बदलाव किया जा सकता है। 2014 तक प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में मतदाताओं की कुल संख्या हमेशा चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध थी। आयोग को पारदर्शी होना चाहिये।

 मतदान सम्पन्न होने के तुरंत बाद जनप्रतिनिधित्व कानून के मुताबिक फॉर्म 17 सी भरना होता है जिसमें ईवीएम और मतदान के सारे डिटेल होते हैं और यह मतदान अभिकर्ता और पीठासीन अधिकारी के हस्ताक्षरों के साथ एक क्लिक पर तत्काल  चुनाव आयोग को भेज दिए जाते हैं। इतनी देरी वाकई अस्वाभाविक है और संदेह उत्पन्न करती है। उल्लेखनीय है कि इन्हीं चरणों में गैर भाजपा शासित तमिलनाडु में हुए मतदान के फाइनल आंकड़ों में मतदान प्रतिशत में मामूली गिरावट दिखाई गई है। इस प्रकरण पर अनेक विचार हैं जो मतगणना में हेराफेरी की आशंका व्यक्त करते हैं। लेकिन एक दृष्टिकोण यह भी है कि इसका उद्देश्य सत्ताविरोधी मतदान को हतोत्साहित करना है। इस धारणा को बल प्रदान करना है कि “ आयेगा तो मोदी ही, चाहे जो कर लो”। इस विचार पक्ष के लोगों का कहना है कि मतदाताओं को इस तरह के मनोवैज्ञानिक युद्ध से सावधान रहना चाहिये। वे अपील भी करते हैं कि मतदाताओं को अपना धर्म निभाते हुए मतदान सोत्साह करना चाहिये। ‘आपका प्रिय दैनिक समाचार पत्र अमर भारती भी मतदाताओं से अपने धर्म का पालन करने की अपील करता है और किसी भी प्रकार के प्रचार से अप्रभावित रहने की सलाह देता है। चुनाव आयोग को संवैधानिक संस्था के रूप में अपनी कार्यशैली से किसी संदेह को जन्म देने से बचना होगा और इसमें सुधार लाना होगा। ऐसा होने पर ही जनता और राजनीतिक दलों के भरोसे का संकट समाप्त होगा और आयोग की गरिमा सुरक्षित रह पाएगी। ।

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अनिल गुप्ता ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )



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