अन्तर्मना उवाच (17 दिसम्बर)
उम्र का तजुर्बा सफल नहीं बनाता बल्कि..
उम्र का सही इस्तेमाल इन्सान को सफल बनाता है..!
दुनिया की सबसे छोटी कहानी — एक बुढ़िया थी, बचपन में मर गई। आपके मन में अनेक प्रश्न खड़े हो रहे होंगे-? कई लोगों की उम्र में भी, उनकी मानसिक उम्र आठ-दस साल से ज्यादा नहीं होती,, और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आठ-दस साल की उम्र के बच्चों में अस्सी साल की मानसिक उम्र होती है।
सन्यास से शारीरिक उम्र का कोई सम्बन्ध नहीं है। जब भी धर्म, पुण्य, सत्कर्म, उपकार, परोपकार, व्रत, नियम, संयम की बात आती है तो तुम टाल-मटोल करने में मास्टर हो गये हो,, तुरन्त जबाब मिलता है – अरे गुरूदेव! यह सब तो बुढ़ापे में करने की चीज है,, और शुभ कार्य और श्रेष्ठ कार्य को कल पर टाल देते हो। सिनेमा देखने के लिये, पाप कार्य के लिए, आज अभी तैयार बैठे हो। अरे भाई! सिनेमा और पाप को बुढ़ापे के लिए छोड़ दो। लेकिन तुम शुभ कार्य, धर्म और परमात्मा, नियम, संयम को स्थगित कर देते हो। जवानी — संसार के लिये और बुढ़ापा — शुभ, श्रेष्ठ और धर्म कार्य के लिये।
हमारी ज्यादा होशियारी ही दुःख में कारण है। हमारी मानसिक सोच बन गई है कि धर्म, व्रत, नियम, संयम तो बुढ़ापे में करने जैसे कार्य है,, फिर आज अभी क्यों-? जब शक्ति होती है तब तुम गलत कार्य करते हो,, और जब शक्ति ख़त्म हो जाती है तब तुम कहते हो कि अच्छा करेंगे। जब शरीर ही साथ नहीं देगा तब हम क्या अच्छा कर पायेंगे। इसलिए मैं हँसते मुस्कुराते कहता हूं — आँख मूंदकर अन्ध बने हैं आखन बांधी पट्टी।
सोचो! हम किसे धोखा दे रहे हैं…???