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हिंदुस्तान शास्त्रीय गायन के उदीयमान सितारे डॉ ओजेश प्रताप सिंह से शिवकुमार बिलगरामी की खास बातचीत

हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन के उदीयमान सितारे प्रो० ओजेश प्रताप सिंह किसी परिचय के मोहताज नहीं है । हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में उनका नाम बड़े अदब के साथ लिया जाता है । प्रो ओजेश प्रताप सिंह यूं तो दिल्ली विश्वविद्यालय की म्यूजिक फैकल्टी में प्रोफेसर हैं पर शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में उनका बहुत ही ऊंचा मुकाम है । चीन , इंग्लैंड , नेपाल , श्रीलंका तथा मॉरीशस जैसे तमाम देशों में उन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन से लोगों को मंत्रमुग्ध किया है । उनकी लिखी बहुचर्चित पुस्तक – हिंदुस्तानी संगीत में साहित्य – साहित्य और संगीत प्रेमियों के लिए मील का पत्थर साबित हुई है । सुरमणि , नादश्री , गान रत्न , संगीत भास्कर , सुर सृजन शिखर सम्मान जैसे तमाम सम्मानों से अलंकृत प्रो ओजेश प्रताप सिंह की संगीतमय यात्रा को आइये समझते हैं उनके हाल में शिवकुमार बिलगरामी को दिए गए एक साक्षात्कार के माध्यम से –

प्रश्न : आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या है ? क्या आपके परिवार में कोई शास्त्रीय संगीत से संबद्ध रहा है ?
उत्तर : मैं मूलतः उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जनपद के एक साधारण परिवार से हूं । मेरे पिता एयरफोर्स में थे । उन्हें थोड़ा बहुत संगीत का शौक था । मेरे माता-पिता के परिवारों की ओर से कोई भी शास्त्रीय संगीत अथवा गायन से संबद्ध नहीं रहा ।

प्रश्न : आपकी शिक्षा दीक्षा कहां हुई ?
उत्तर : जैसा मैंने बताया मेरे पिताजी एयरफोर्स में थी । उनकी पोस्टिंग मोदीनगर में थी । इस कारण हमारा परिवार मोदीनगर आ गया था । शुरुआती शिक्षा हमने मोदीनगर से ग्रहण की । दयावती मोदी पब्लिक स्कूल से 10वीं और 12वीं की पढ़ाई पूरी की । दसवीं क्लास के बाद 11वीं और 12वीं की पढ़ाई मैंने कॉमर्स विषयों के साथ पूरी की । इसके बाद एम एम डिग्री कॉलेज से बीकॉम की पढ़ाई पूरी की । बाद में एम ए म्यूजिक की पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय में की। शास्त्रीय संगीत में एमफिल और पीएचडी की पढ़ाई भी दिल्ली विश्वविद्यालय से ही पूरी की ।

प्रश्न : संगीत और गायन में आपकी रुचि कब पैदा हुई ? आपने कब से सीखना शुरू किया ?
उत्तर : मेरे पिताजी संगीत में , विशेषकर गायन में रुचि रखते थे । कभी-कभार शौकिया गाते भी थे । जब मैं 4 वर्ष का था तो बेग़म अख़्तर की गाई एक ग़ज़ल को गुनगुना रहा था । उस समय (1970 के दशक में) आम लोगों की संगीत तक पहुंच रेडियो के माध्यम से होती थी। बेग़म अख़्तर के गाए गीत ग़ज़ल अक्सर रेडियो पर बजते थे। इसी कारण उनके द्वारा गाई गई किसी ग़ज़ल की कुछ लाइनें मुझे कंठस्थ हो गई थीं । मैं उन्हीं को गुनगुना रहा था । पिताजी को उम्मीद भी नहीं थी कि 4 वर्ष का कोई बच्चा बेग़म अख़्तर की गाई ग़ज़ल को गा पाएगा । पहले उन्होंने इधर-उधर देखा कि आवाज़ कहां से आ रही है । वहां कोई और था ही नहीं तो उन्होंने अपना ध्यान मेरी तरफ केंद्रित किया । जब उन्होंने पाया कि मैं ही बेग़म अख़्तर की गाई पंक्तियों को गुनगुना रहा हूं तो बहुत खुश हुए। उसी दिन वह मुझे अपने साथ एक परिचित के यहां ले गए और उनके यहां रखा एक पुराना हारमोनियम खरीद कर ले आए । इसके बाद वह निरंतर मेरी संगीत शिक्षा पर ध्यान देते रहे । मेरे पहले गुरु मेरे पिताजी थे।

प्रश्न : कहा जाता है कि शास्त्रीय गायन और संगीत की शिक्षा उन लोगों के लिए बहुत मुश्किल होती है जो किसी घराने से संबद्ध नहीं होते । आपको किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ा ?
उत्तर : यह सच है कि जिन लोगों का संबंध किसी विशिष्ट घराने से नहीं होता या जिन पर किसी बड़े उस्ताद का वरदहस्त नहीं होता उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। बचपन में हम जहां रहते थे वहां कोई ऐसा उस्ताद नहीं था जिससे हम बाकायदा शास्त्रीय संगीत गायन की शिक्षा ग्रहण कर पाते । मुझे इस क्षेत्र में लाने के लिए मेरे पिताजी ने बहुत अधिक तपस्या और श्रम किया है । उन दिनों सरकारी दफ्तरों में केवल रविवार को छुट्टी होती थी । पिताजी मुझे प्रत्येक रविवार किसी न किसी ऐसे व्यक्ति के पास ले जाते थे जिसके बारे में पता चलता था कि वह संगीत सिखाता है । मुझ में गायन की प्रतिभा ईश्वर प्रदत्त थी लेकिन उसमें निखार लाने के लिए योग्य संगीत गुरु की आवश्यकता थी । इसलिए बहुत अधिक भटकना पड़ा ।

प्रश्न : यह तलाश कब पूरी हुई ?
उत्तर : जब मैं ग्रेजुएशन कर रहा था तभी जयपुर में सुर संगम संस्था की ओर से एक गायन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया । पिताजी मुझे भी इस प्रतियोगिता में लेकर गए। मैंने इस प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त किया । वहीं पर पिताजी की मुलाकात श्री रामलाल माथुर जी से हुई । उन्होंने मेरे गायन की भूरि भूरि प्रशंसा की और पिताजी से पूछा कि बच्चा कहां सीख रहा है । पिताजी ने बताया कि कुछ दिनों तक रामपुर घराना के उस्ताद गुलाम सीराज़ ख़ान साहब से सीखा है । फिलहाल खुद ही मेहनत कर रहा है । यह सुनकर रामलाल माथुर जी ने दिल्ली स्थित पं० महादेव गोविंद देशपांडे जी के बारे में बताया और उनसे संपर्क करने के लिए कहा । जयपुर से लौटने के बाद अगले रविवार पिताजी मुझे लेकर पंडित महादेव गोविंद देशपांडे के पास पहुंच गए । पंडित महादेव गोविंद देशपांडे ग्वालियर घराने के उस्ताद थे। संगीत में रचे बसे उनके व्यक्तित्व ने मुझे पूरी तरह शास्त्रीय गायन की ओर मोड़ दिया । उनसे मिलने के पहले मैं ग़ज़लें गाता था । बहुत कम उम्र में मैं ग़ज़लों की कंपोजिशन सीख गया था । लखनऊ , रामपुर , बरेली , दिल्ली जैसे रेडियो स्टेशन पर अपनी प्रस्तुतियां देने जाता था । मंचों पर भी गाता था । लोग सुनते थे और सराहते थे । वही मुझे अच्छा लगता था । मैं एम०काम करके सरकारी नौकरी में जाना चाहता था । लेकिन पंडित महादेव गोविंद देशपांडे ने मुझे एम ए म्यूजिक में प्रवेश लेने के लिए प्रेरित और आदेशित किया । उनसे मिलने के बाद मैं पूरी तरह हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन की ओर मुड़ गया और तब से यह यात्रा निरंतर जारी है। इस यात्रा को और अधिक समृद्ध और आनंदपूर्ण बनाने का श्रेय मेरे मौजूदा गुरुदेव ग्वालियर , जयपुर और आगरा घराना के सिद्धहस्त शास्त्रीय गायक पद्मश्री पंडित उल्हास काशलकर जी को जाता है जिनके सानिध्य में रहकर मैं निरंतर हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन की बारीकियां सीख रहा हूं ।

प्रश्न : शिक्षण क्षेत्र में आपका पदार्पण कब हुआ ?
उत्तर : वर्ष 1996 में उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा बोर्ड द्वारा असिस्टेंट प्रोफेसर के रिक्त पदों के लिए विज्ञापन दिया गया । मैंने आवेदन किया । मेरा इंटरव्यू हुआ और इसमें मेरा चयन हो गया । मुझे श्री मुरली मनोहर टाउन डिग्री कॉलेज , बलिया में पोस्टिंग मिली । 1997 से अगस्त 1999 तक मैं वहां सेवा में रहा । क्योंकि बलिया मेरे घर परिवार से बहुत दूर था मुझे वहां रहने और प्रत्येक सप्ताह वहां से आने-जाने में बहुत परेशानी होती थी । इसलिए मैंने वहां से त्यागपत्र दे दिया और दिल्ली विश्वविद्यालय में तदर्थ लेक्चरर के रूप में ज्वाइन कर लिया । बाद में 2005 में मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में नियमित सेवा में आ गया ।

प्रश्न : संगीत शिक्षण में वर्तमान में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है ?
उत्तर : संगीत और गायन का शिक्षण अन्य विषयों की तुलना में थोड़ा अलग है । इसके दो भाग हैं । पहला ज्ञान (knowledge) और दूसरा कौशल (skill) । कौशल हस्तांतरण के लिए आवश्यक है कि शिक्षक विद्यार्थियों को भरपूर समय दे । 40-45 मिनट के पीरियड में यह संभव नहीं है । तदर्थ नियुक्तियों की परिपाटी के कारण शिक्षक पूरा ध्यान विद्यार्थियों पर केंद्रित नहीं कर पाते । कैरियर संबंधी अनिश्चितता के कारण विद्यार्थियों से दीर्घकालिक संबद्धता नहीं हो पाती जो की बहुत आवश्यक है । इसके अलावा वाद्य यंत्रों की समुचित व्यवस्था और अनुकूल वातावरण का होना भी बहुत जरूरी है ।

प्रश्न: वर्तमान में जब मनुष्य की प्रत्येक गतिविधि के केंद्र में आर्थिक लाभ अर्जित करने की सोच है , ऐसी स्थिति में शास्त्रीय संगीत अथवा शास्त्रीय गायन की उपयोगिता के बारे में आप क्या सोचते हैं ?
उत्तर : संस्कृत में बहुत पुरानी उक्ति है -साहित्य संगीत कला विहीन: / साक्षात्पशु: पुच्छ विषाणहीन: । वर्तमान में जब मनुष्य की सोच निरंतर सीमित , स्वार्थी और संकीर्ण होती जा रही है इस स्थिति में साहित्य और संगीत की उपयोगिता और अधिक बढ़ जाती है । बाकी विषयों के अध्ययन से आप इंजीनियर , डॉक्टर और प्रशासक बन सकते हैं। धन अर्जित कर सुख सुविधाएं जुटा सकते हैं । लेकिन शास्त्रीय गायन एक तरह का ऐसा सुर विज्ञान है जो आपको प्रकाश (Enlightenment ) की ओर ले जाता है ।वृहदारण्यकोपनिषद में एक श्लोक आता है – असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । विद्या का उद्देश्य रोटी रोजी अर्जित करना नहीं है । रोटी रोजी तो कार्य दक्षता (skill ) के माध्यम से भी अर्जित की जा सकती है । लेकिन असत्य से सत्य और अंधकार से प्रकाश की ओर शास्त्रीय संगीत और शास्त्रीय गायन जैसी विद्याएं ही ले जाती हैं । पृथ्वी पर मनुष्यता को बचाए रखने के लिए उन सभी विद्याओं का होना बहुत जरूरी है जो मनुष्य के अंदर संवेदनशीलता को जीवंत रख सकें ।

प्रश्न : आपको अपने छात्रों में कौन सी विशेषताएं देखने की उम्मीद रहती है ?
उत्तर : पहले संगीत और गायन गुरू शिष्य परंपरा में सिखाया जाता था । गुरु उन्हीं शिष्यों को सिखाने की सहमति देता था जिनमें श्रद्धा और समर्पण भाव हो । जिनकी गुरू में अटूट निष्ठा हो । जो परिश्रम से घबराते न हों और समय के पाबंद हों । इसी तरह संगीत और साहित्य के मुमुक्षु विद्यार्थी उन्हीं को अपना गुरु बनाते थे जो अपने विषय में पारंगत हों और कला के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हों । आज भी वही शिष्य निखरते हैं जिनमें उपरोक्त गुण होते हैं और वही गुरू सम्मान पाते हैं जो अपनी कला और विषय में पारंगत होते हैं। लेकिन वर्तमान में इसका एक दुखद पहलू यह भी है कि न तो गुरू अपनी मर्जी से शिष्यों का चयन कर सकता है और न ही शिष्य गुरू का । जब विद्यार्थियों का प्रवेश और शिक्षकों की नियुक्तियां आरक्षण आधार पर हों तो योग्यता की बात ही बेमानी हो जाती है ।

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