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ये ज़िन्दगी है साहब यहाँ हर किसी से किसी को कुछ ना कुछ सुनकर सहना पड़ता है, सुनकर बैठ जाने वाले यूँही गुमनाम हो जाते हैं,लेकिन किसी का व्यंग दिलपर लग जाये तो जीने की राह बन जाती है. कुछ ऐसा ही वाकया हुआ जमुई के आनंद किशोर मिश्रा जी के साथ वो याद करते हुए बताते हैं कि स्कूलिंग के समय एकबार पर्यावरण संरक्षण को लेकर भाषण प्रतियोगिता रखी गयी थी जिसमें उसके वक़्त मुंगेर जिले में पड़ने वाले जमुई से इनका नाम प्रथम रहा था, मन में उत्साह था सफलता का, आँखों में चमक थी लोगों कि तालियों की दिल में अरमान था राज्य विजेता बनने की, पर उसी समय इनके किसी खास मित्र ने मजाकिया अंदाज में इनकी भाषण को व्यक्तिगत जीवन से जोड़ सवाल खड़ा कर पूछ लिया कि भाषण में तो बड़ी बातें हुई क्या रियल जिंदगी में आपके गाँव में 5 पेड़ से ज़्यादा है क्या!!!
बस यहीं से ये बात इनके दिल में घर कर गयी और उसी दिन से ठान लिया कि जबतक जियूँगा पेड़ लगाता रहूंगा और आलम ये है की अबतक ये 5000 से अधिक पेड़ लगाकर छाया का सेहरा पहने जीवन को समर्पित कर दिए..

आर्थिक तंगी भी नहीं रोक पायी इनकी कारवां..
जैसा की आनंद किशोर मिश्र एक अवैतनिक शिक्षक के रूप में कार्यरत थे, सरकारी या कोई वेतन इनको नसीब नहीं, ट्यूशन पढ़ा के परिवार का भरण पोषण करना इनकी मज़बूरी बन गयी कई बार लोग इनपर हसे पर फिर भी ना रुके, लोगों का बेरोजगार है का ताना सुनकर सब सहे पर पर्यावरण में ही खुशियाँ ढूंढ़ दुःख गम को भुलाने की कोशिश में मसगुल हो जाते थे.

जबतक मरेंगे नहीं तबतक छोड़ेंगे नहीं…

न जमीन की चिंता ना कोई स्वार्थ, बस पेड़ लगना चाहिए एक ही संकल्प…
जब ये पेड़ लगाते थे तो कई बार किसी दूसरे की जमीन में लगाने के लिए इनको जमीन मालिक से खुशामद करनी होती थी, साथ ही सारा मालिकाना हक भी जमीनवाले को देते थे, पहले खुद की निजी जमीन पर पेड़ लगाए फिर जमीन काम पड़ने पर ये घूम घूम के औरों को प्रेरणा देकर या ख़ुश पेड़ लगा देते थे या उन्हें प्रेरित कर लगवाते थे… बात सिर्फ जमुई ही नहीं बल्कि भागलपुर, मुंगेर आदि जिलों में जहाँ भी इनके रिस्तेदार हैं वहाँ जाकर पेड़ लगाया और लगवाया.इनके प्रेरणा से आज कइयों के पास सैकड़ों पेड़ हैं और इनके पास खुद हजारों.
आलम ये है की जेब खाली है पर पेड़ लगने की ख़ुशी में अपनी जिंदगी की सारी गमों को भूल ये मुस्कुराते हुए बोलते हैं मरते दमतक जबतक मरेंगे नहीं तबतक छोड़ेंगे नहीं…

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