दशलक्षण धर्म की यात्रा को हमने सानन्द पूर्ण किया। वास्तव में दशलक्षण ‘धर्म के यह दश दिन तो प्रशिक्षण के रूप में हमारे बीच आते है। जिसप्रकार क्रिकेट का खिलाड़ी क्रिकेट का प्रशिक्षण लेने के बाद क्रिकेट पिच पर उतरता है तो बैटिंग करते हुए आती हुई बॉल को देखकर-समझकर अपनी प्रतिक्रिया करता है और जीतकर आता है, ठीक वैसे ही दशलक्षण धर्म का प्रशिक्षण प्राप्त करके हम मुनिधर्म अथवा श्रावक धर्म की पिच पर उतरते हैं, कर्म बॉल फेंकता हैं और हम कर्मरूपी बॉल की चाल-ढाल देखकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं कभी अपने विवेक से बैटिंग करते हुए चौका, छक्का तो कभी सामान्य रन बनाते हैं और कभी- कभी मात्र पुस करके छोड़ देते हैं, ये सब अपने विवेक की बात है कर्म कहता है – मैं तुम्हें आउट करके रहूँगा, तो साधक जिसने दशलक्षण धर्म में प्रशिक्षण प्राप्त किया है, वह कहता है- मैंने भी दश धर्म रूप भावों का प्रशिक्षण प्राप्त किया है, मैं भी देखता हूँ कि तुम कैसे मुझे आउट करते हो। और इन दश लक्षण रूप धर्म-भावों में रचा-पचा साधक कभी-भी कर्मों की मार से कभी हारता नहीं है, पराजित नहीं होता, हमेशा प्रगति उत्थान करता हुआ विजेता होता है।
बन्धुओ ! नमक, शक्कर, फिटकरी का चूर्ण देखने में एक जैसा होता है, किन्तु गंदले पानी को शुद्ध करने के लिए फिटकरी ही कार्यकारी है, नमक- शक्कर से कभी गंदा पानी शुद्ध नहीं होता। नमक शक्कर से पानी मीठा-खारा हो सकता है लेकिन पानी शुरू नहीं हो सकता ठीक वैसे ही धर्म हमारे जीवन में फिटकरी की तरह होता है जो हमारे आत्मा रूपी जल को शुद्ध करने के लिए एकमात्र साधन है। पुण्य और पाप मिठास और खारापन की तरह जीवन में अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता पैदा कर सकते है किन्तु आत्मारूपी जल की शुद्धि एकमात्र धर्मरूपी फिटकरी से ही हो सकती है। आपको अपने घर का पानी शुद्ध करना है तो आप किसी से फिटकरी माँगकर भी ला सकते हैं किन्तु आत्मा को शुद्ध करने के लिए आपको स्वयं ही धर्मरूपी फिटकरी पैदा करनी होगी, दूसरे की फिटकरी अर्थात् दूसरों के धर्म करने से कभी अपने जीवन में धर्म की अनुभूति नहीं हो सकती । इसीलिए मैं कहता हूँ 1 धर्म हमेशा व्यक्तिगत होता है, भले ही हम भगवान की पूजा समूह में करें, किन्तु सबका धर्म अपना-अपना हो रहा है।